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"कर्मयोगी"

Friday, January 30, 2009

लौ है जल उठी...!


















लौ थी बुझी सी,

नीरस था जीवन,

खुशियों से था ना कोई नाता..


अकेलेपन से थी दोस्ती,

भूले थे अपनी ही हस्ती,

सिर्फ याद थी निराशा..!


पर था नही हारा,

कायम था तेज,

नाही लगाईं उम्मीद किसी से,

ना की तलाश किसी की,

केवल की प्रतीक्षा..


हुई दस्तक,

गूंज गया सन्नाटा,

चमकी आँखें,

रौशन हुआ अँधेरा..

अब रहने लगी हंसी चेहरे पे,

जैसा मिला नया जीवन,

हुआ तेज और तेज..

नहीं रखी है कोई शर्त,

पर पुरे करने है कई सपने,
नहीं जगह अब अकेलेपन की,

अब तो पराये भी लगते हैं अपने..


लौ है जल उठी,
प्रफ्फुलित है जीवन,

खुशियों से है अब नाता..!!