ना मैं संधि हूँ,
ना मैं विच्छेद हूँ,
ना मैं विधि हूँ,
ना ही मैं निषेध हूँ,मैं क्या जानूं,मैं हूँ कौन..!
ना मैं वेद हूँ,
ना मैं कुरान हूँ,
ना मैं स्थिर हूँ,
ना ही मैं गतिमान हूँ,मैं क्या जानूं,मैं हूँ कौन..!
ना मैं शु्ध हूँ,
ना मैं अशुद्ध हूँ,
ना मैं अमृत हूँ,
ना ही मैं विष हूँ,मैं क्या जानूं,मैं हूँ कौन..!
ना मैं जप हूँ,
ना मैं तप हूँ,
ना मैं आदि हूँ,
ना ही मैं अंत हूँ,मैं क्या जानूं,मैं हूँ कौन..!
ना मैं आस हूँ,
ना मैं विश्वास हूँ,
ना मैं संन्यास हूँ,
ना ही मैं तलाश हूँ,मैं क्या जानूं, मैं हूँ कौन..!
मैं क्या जानूं, मैं हूँ कौन..!
मैं क्या जानूं, मैं हूँ कौन..!
9 comments:
Aapko pata chale to kripya hame bhi batayen.
जी संध्याजी ज़रूर!
खुद को ही जान न पाना, मनुष्य की सबसे बड़ी दुविधा है...
उम्मीद है जल्द ही मैं इससे मुक्त हो जाऊंगा...!!
पर हम जानते हैं आप कौन हैं .......आप संगम हैं ....संगम बड़ी पाक जगह होती है जहां नदियाँ आकर मिलती हैं .......!!
hey hi ..
nice poem..
bahut sahi likha hai..
lekin mujhe lagta hai ..
mai hoo koun ki jagah..
"koun hooo mai" ya
"mai koun hoo" jyada jamega.. :)
hello sahityika...
i appreciate ur idea..
but, I'm not a poet...isliye kuch jamata nai hu..
बस मेरे मस्तिष्क में जो अवसाद है,
उसे परोस देता हूँ!
bahut hi sunder hai...
dhanyawad Somyaaji...!!!
bahut sundar hai yah... aap mere blog http://amritras.blogspot.com par bhi aayen..
डॉ. नूतन: ji shukriya,jaroor.....!!
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